वीडियो जानकारी: 19.05.2022, गीता सत्र, ग्रेटर नॉएडा<br /><br />प्रसंग: <br />~ निष्काम कर्म का अर्थ<br />~ कृष्ण हमें क्या समझाना चाह रहे हैं ?<br />~ गीता का सही अर्थ <br />~ किन्हें गीता कभी समझ नहीं आती? <br />~ वेदों में कर्मकांड का कितना महत्त्व है?<br /><br />यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।<br />तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।<br />जब तुम्हारी बुद्धि मोह या अज्ञान रूप पाप को छोड़ देगी तब सुनने योग्य और सुने हुए विषयों में <br />तुम्हें वैराग्य प्राप्त होगा अर्थात् वे विषय तुम्हारे सामने निरर्थक हो जाएंगे।<br />श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५२)<br /><br />श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।<br />समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।<br />जब अनेक प्रकार की लौकिक और वैदिक फल-श्रुतियों को सुनकर विक्षिप्त हुई तुम्हारी बुद्धि <br />निश्चल हो जाएगी तब तुम समबुद्धि की अवस्था को प्राप्त होओगे।<br />श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५३)<br /><br />अर्जुन उवाच<br />स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।<br />स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।<br />अर्जुन ने पूछा - हे केशव! समाधियुक्त स्थितप्रज्ञ व्यक्ति का क्या लक्षण है? अर्थात् स्थितप्रज्ञ व्यक्ति में <br />कौन-कौन से विशिष्ट लक्षण प्रकट होते हैं? स्थितबुद्धि अर्थात् जिसकी बुद्धि आत्मा में स्थित है वह, <br />कैसी बातें करता है, किस तरह रहता है? और कहाँ-कहाँ विचरण करता है?<br />श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५४)<br /><br />श्री भगवानुवाच<br />प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।<br />आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।<br />कृष्ण कहते हैं कि आत्मा में ही अर्थात् बाहरी विषयों से हटकर स्वरूप के आनंद में संतुष्ट रहकर <br />जब व्यक्ति मन की सभी कामनाएँ त्याग देता है तो उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं।<br />श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५५)<br /><br />दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।<br />वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।<br />दुखों में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुखों में जो आकांक्षा-रहित है, आसक्ति, भय, क्रोध से रहित है, <br />ऐसे व्यक्ति को स्थितधिय या स्थितप्रज्ञ या स्थितबुद्धि मुनि कहते हैं।<br />श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५६)<br /><br />संगीत: मिलिंद दाते<br />~~~~~